श्री राम नाम लेखन एवं जप सेवा!

नाम महिमा

प्रिय देवी और सज्जनों आप सबको ज्ञात होगा कि सनातन धर्म में चार युगों की अवधारणा है, ये युग हैं- सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग। भक्तिकाल के महान संत गोस्वामी जी ने चारों युगों के विविध अनुष्ठानों और फलों का उल्लेख ‘रामचरितमानस’ में किया है, जो इस प्रकार है-

कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग। जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग॥

अर्थात् सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान्‌ के नाम से पा जाते है। पुनः कहते हैं -


कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी॥ त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं॥

अर्थात् सत्ययुग में सब योगी और विज्ञानी होते हैं। हरि का ध्यान करके सब प्राणी भवसागर से तर जाते हैं। त्रेता में मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैं और सब कर्मों को प्रभु को समर्पण करके भवसागर से पार हो जाते हैं॥


द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा॥ कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा॥

अर्थात् द्वापर में श्री रघुनाथजी के चरणों की पूजा करके मनुष्य संसार से तर जाते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है और कलियुग में तो केवल श्री हरि की गुणगाथाओं का गान करने से ही मनुष्य भवसागर की थाह पा जाते हैं॥


कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥ सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥ सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं॥ कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा॥

अर्थात् कलियुग में न तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है। श्री रामजी का गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतएव सारे भरोसे त्यागकर जो श्री रामजी को भजता है और प्रेमसहित उनके गुणसमूहों को गाता है। वही भवसागर से तर जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। नाम का प्रताप कलियुग में प्रत्यक्ष है। कलियुग का एक पवित्र प्रताप (महिमा) है कि मानसिक पुण्य तो होते हैं, पर (मानसिक) पाप नहीं होते।

कलियुग को चारों युगों में निकृष्ट माना गया है, कारण कि स्वधर्म से निरत हो सभी पाखंड का आश्रय लेंगे किन्तु कलियुग की महानता और दिव्यता यह है कि साधारण से साधारण व्यक्ति कोई कठिन अनुष्ठान-तप किये बिना भी, सुलभता से ईश्वर की प्राप्त कर सकता है। सत्ययुग में सत्त्व गुण की आधिक्यता मनुष्य में होता है, त्रेता में सत्त्व की अधिकता के साथ रजोगुण का सामंजस्य, द्वापर में रजोगुण की आधिक्यता, सत्त्व और तम की साम्यता हो और कलियुग में “तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा” अर्थात् तमोगुण की आधिक्यता तमोगुण अधिक और वैर-विरोध अधिक हो, ये चारों युग का लक्षण कहा गया है।

इस संदर्भ में गोस्वामी तुलसी दास जी का मत है- कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास। गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥ अर्थात् यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है, (क्योंकि) इस युग में श्री रामजी के निर्मल गुणसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाता है। स्कन्द पुराण के नागरखंड में राम नाम महिमा के संदर्भ में श्री शिव जी माता पार्वती जी से कहते हैं -


रामेति व्यक्षरजपः सर्वपापनोदकः। गच्छस्तिष्ठज्यानो वा मनुजो रामकीर्तनात्॥
इह निवर्तितो याति चान्ते हरिगणो भवेत्। रामेति द्वयक्षरो मंत्रो मंत्रकोटिशताधिकः॥
द्वयक्षरो मंत्रराजोsयं भवत्यधिनिषूदकः। रामचंद्रेति रामेति रामेति समुदाहृतः॥
द्वयक्षरो मंत्रराजोsयं सर्वकार्यकरो भुवि। देवा अपि प्रगायन्ति रामनाम गुणाकरं॥
तस्मात् त्वमपि देवेशि रामनाम सदा वद। राम नाम जपेद् यो वै मुच्यते सर्वकिल्बषै॥

अर्थात् ‘राम’ यह दो अक्षर सर्वपाप नाशक है,चलते, खड़े हुए अथवा सोते, जो कोई मनुष्य राम नाम का कीर्तन करता है वह संसार में कृतकार्य हो भगवान हरि का पार्षद बनता है। ‘राम’ यह दो अक्षर असंख्य मंत्रों से भी अधिक महत्वकारी है।

रामचंद्र, राम-राम इस प्रकार उच्चारण करने पर यह दो अक्षर का मंत्रराज पृथ्वी के सभी कार्यों को सफल बनाता है। इसलिए, हे पार्वती ! तुम भी सदा राम नाम जपा करो, यह सर्व (पूर्वकृत एवं वर्तमान कृत सूक्ष्म तथा स्थूल) पापनाशक है।

नारद पंचरात्र के क्रमशः ब्रह्म व हिरण्यगर्भ संहिता में कहा गया है-


श्रीरामेति परं जाप्यं तारकं ब्रह्मसंज्ञकम्। ब्रह्हत्यादिपापघ्नमिति वेदविदो विदुः॥ श्रीरामेति परं मंत्रं तदेव परमं पदम्। तदेव तारकं विद्धि जन्ममृत्युभयापहम्॥

अर्थात् राम ऐसा पद तारक ब्रह्म कहलाते है, यह मंत्र ब्रह्महत्यादि जैसे जघन्य पापों का नाशक है, ऐसा वेद के जाननेवालों ने कहा है। श्री राम का नाम परम मंत्र और परमपद है, वहीं जन्म-मरण का भय नाश करने वाला है, इसे तारकब्रह्म जानो। श्री मद्भागवत पुराण में श्री शुकदेव जी परीक्षित जी से कहते हैं-


यथागदं वीर्यतममुपयुक्तं यदृच्छया। अजानतोsप्यात्मगुणं कुर्य्यान्मंत्रोsप्युदाहृतः॥

अर्थात् जैसे अमृत विषादि शक्तिमान् औषध दैववश अनजाने में भी भक्षण करने पर भी अपना प्रभाव अवश्य दिखाता है, उसी प्रकार श्रीरामनाम अनजाने में भी जप करने पर संसार के दुःखों को मिटा देता है।

राम नाम की महिमा सैकड़ों मुख वाले शेष और विद्या व वाणी की साक्षात् देवी सरस्वती भी नहीं कर सकतीं, नाम की महिमा को विशेषकर मध्यकाल के निर्गुण व सगुण भक्त संत कवियों ने जनमानस में लोकभाषाओं के माध्यम से रखा। देवी एवं सज्जनों ऊपर के विभिन्न उद्धरण नाम महिमा के हैं, नाम लेख में क्या होता है हमारा जप व लेखन दोनों चलता है। नाम लेखन की महिमा “आनंद रामायण, मनोरहकांड, सातवें सर्ग” में आया है, जहाँ विष्णुदास अपने गुरु से श्री राम जी को प्रसन्न करने के लिए विधि बतलाइए “राघवस्य तुष्टिदं किं वदस्व तत्”। तत्पश्चात ‘रामदास’ नामक गुरु कहते हैं –


लेखनीयं रामनामशतानि नव प्रत्यहम्। अथवाsअष्टोत्तरशतं पूजनीयं सविस्तरम्॥

अर्थात् श्री राम की प्रीति की इच्छा वाले मनुष्य को चाहिए कि प्रतिदिन नौ सौ या एक सौ आठ रामनाम लिखकर उसका सश्रद्धा पूजन करे।

पुनः इसी सर्ग में कहा गया “जपात् शत् गुणं पुण्यं रामनामप्रलेखने” अर्थात् जप की अपेक्षा सौ गुणा अधिक पुण्य रामनाम लिखने में है।




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